अंक -2 में आप सभी पाठकों का हार्दिक अभिनंदन है। शेखावाटी के स्वतंत्रता सेनानी श्री सांवताराम मीणा ,श्री करनाराम मीणा, श्री डूंगजी शेखावत, श्री जवाहर जी शेखावत और वीर लोठू जाट भाग- 2

शेखावाटी के वीर स्वतंत्रा सेनानी सांवता राम मीणा व करना राम मीणा भाग-2
जिससे रजवाड़े बर्बाद हो गए इधर अंग्रेज इस मौके की तलाश में फिर रहे थे उन्होंने सभी राजाओं से संधियां कर ली और उनको सुरक्षा का वचन दे दिया,
“”अंधे को क्या चाहिए दो आंख””
राजाओं को क्या चाहिए था उन्होंने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया और अपनी सुरक्षा का जिम्मा अंग्रेजों को सौंप कर चैन की बंसी बजाई ।जब अंग्रेजों ने रजवाड़ों की चारों तरफ अव्यवस्था व आपसी फूट दिखाई दी ।
तब उन्होंने रजवाड़े में आंतरिक दखलअंदाजी देना शुरू कर दिया।
देसी रियासतों के राजाओं को केवल अपनी सुरक्षा और आराम से मतलब था उन्होंने जिस तरह मुगलों और मराठों द्वारा अत्याचार सहन किए थे उसी तरह अंग्रेजों द्वारा भी अत्याचार व शोषण के शिकार होने लगे परंतु राजस्थान के स्वतंत्रता प्रेमी जागीरदार इस स्थिति से बहुत दुखी थे ।
देसी राजाओं द्वारा अंग्रेजों के प्रत्येक काम को आगे रखना उनको अच्छा नहीं लगता था ।
स्वतंत्रता प्रेमियों नेअंग्रेजो के खिलाफ खुली बगावत शुरू कर दी।
इनके पास ब्रिटिश शक्ति के सामने इतनी संगठन शक्ति भी नहीं थी परंतु देश की स्वतंत्रता की भावना से मरण मारण व बलिदान होने के लिए तैयार हो गए।
इन जागीरदारों में शेखावाटी के पाटोदा के ठाकुर डूंगजी, जवाहर जी और उनके रन योद्धा सांवताराम मीणा, करनाराम मीणा और लोठू जाट, बीकानेर के ठाकुर हरि सिंह बिदावत ,भोजोलाई का आनंद सिंह, सूरजमल ददरेवा आहुआ का ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत, बिशन सिंह मेड़तिया ,गूलर ,शिवनाथ सिंह आमोय, श्याम सिंह चौहटन बाड़मेर, नाथू सिंह देवड़ा बढ़ाना, सिरोही बलवंत सिंह गोठड़ा और कोटा नरेश का छोटा भाई पृथ्वी सिंह हाडा आदि प्रमुख थे ।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजो के खिलाफ एक संगठित और योजनाबद्ध विद्रोह का आयोजन किया गया जिससे अंग्रेजी सत्ता अचंभित हो गई इस संगठन में शेखावाटी क्षेत्र के प्रमुख भागीदार शामिल हुए जिसमें स्वरूप सिंह खिरोड़ देवता और मोहनवाड़ी आदि इन संगठन के साथ 36 जातियों का सहयोग था इनमें मुख्य रूप से मीणा, जाट राजपूत ,गुर्जर, बढ़ई ,लोहार और नाई आदि प्रमुख सहयोगी के रूप में बहादुरी से भाग लिया।
इसलिए आंदोलन एक समाज विशेष का न रहकर आम जनता का हो गया था ।
डूंगजी,जवाहर जी , सांवताराम मीणा, करण्या मीणा और लोठू जाट की तारीख में लिखी हुई काव्य सामग्री बहुत संख्या में है जिसकी महिमा दंगल ,गीत पवाड़ा और छावनियां में है इनके अलावा इन बहादुर वीरों की बहादुरी के चर्चे राजस्थानी में बहुत हैं जिनमें इनको अंग्रेज विरोधी हीरो बताया गया है और इनकी प्रशंसा खूब की गई है जिसमें अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ समाज में बुराई फैल चुकी थी जिसके लिए कवि ने लिखा भी है
मीनखा निठगी मोठ बाजरी ,घोड़ा निठग्यो घास।।
अर्थात- मानव के लिए खाने को अनाज नहीं रहा और पशुओं तथा घोड़ों के लिए चारा नहीं रहा।
शेखावाटी के वीर स्वतंत्रा सेनानी नामक पुस्तक में लेखक द्वारा इनकी बहादुरी की महिमा का वर्णन किया गया है।
इन बहादुरों के द्वारा मुगलों की राजधानी रही आगरा किले को दिनदहाड़े तोड़कर नसीराबाद की छावनी पर धाड़ा मारकर अंग्रेजों की मजबूत सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था।
और इन्हीं के परिणाम 1857 की क्रांति हुई ।
सन 1805 तक अंग्रेजों की राजस्थान में कोई विशेष दखल नहीं थी सन 1819 तक यहां के सभी राजा आपसी लड़ाइयों से तंग आकर मराठों के बढ़ते हुए लालच से छुटकारा पाने के लिए बड़ी आसानी से कंपनी बहादुर की शरण में आ गए थे,
कभी किसी ने विरोध भी किया तो तत्कालीन विकट परिस्थितियों में आखिरी रूप से यह तय करना मुश्किल था कि
” ऊंट किस करवट बैठेगा “कंपनी व मराठों में जो भी ताकत राजाओं को भारी लगती उसी के साथ हो जाते थे, मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बाद राजस्थान के राजाओं की अपनी कोई ताकत शेष नहीं रही थी। केंद्रीय सत्ता के सारे बिना उनका जीना दूभर हो गया था ।
मुगलों के बाद उन्हें मराठों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। मराठों और अमीर खां ने तो उनके पारिवारिक मामलों में हस्तक्षेप आरंभ कर दिया था।
वह जैसे जैसे उनका पीछा छुड़ाना चाहते थे अंग्रेजों से इस बाबत आश्वासन मिलने पर उन्होंने निर्विलम्ब उनकी दास्तां मंजूर कर ली।
आश्रित सेना की नीति ने तो राजाओं को अंग्रेजों की कठपुतली ही बना दिया अंग्रेज तत्कालीन हिंदुस्तानियों की हरकत से वाकिफ थे।
हर नई स्थिति का नए ही दांवपेच से मुकाबला करते थे और इसके विपरीत यहां का शासक वर्ग अपने में ही खोया था नई परिस्थितियों का पुरानी मान्यताओं से सामना करना जानते थे, शारीरिक ताकत से लड़ने भिड़ने से अधिक उनकी रणनीति का कोई दूसरा दायरा नहीं था, लड़ाई की शिवाय सीधा आत्मसमपण करना जानते थे दूसरा मार्ग उन्हें अधिक सरल दिखाई दिया जातीय संगठन पर किसी परिणाम मूलक उद्देश्य के अभाव में आपसी झगड़े तो कभी खत्म ही नहीं होते थे ।
राजा और बड़े-बड़े जागीरदारों के बीच हमेशा तलवारे तनी रहती थी मारवाड़ के राजा मानसिंह की तो पूरी उम्र ही जागीरदारों से युद्ध करने में बीत गई।
जागीरदार बड़े ताकतवर थे उन्होंने राजाओं के नाक में दम कर रखा था या मराठों के सिवाय घरेलु आफतों से बचने के लिए भी राजाओं ने अंग्रेजों की सहायता ली ,अंग्रेज ऐसे मौकों की तलाश में ही रहते थे। जरूरत पड़ने पर वे स्वयं भी ऐसी स्थिति पैदा करवा देते थे। चंद स्वार्थ के लिए देश का बड़ा से बड़ा नुकसान कर देने की हिंदुस्तान की स्थिति थी और अंग्रेजों ने उनका लाभ उठाया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में राजस्थान का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है ।
अंग्रेजी आतताईयों के विरुद्ध एक और जहां यहां के स्वतंत्रता सेनानी ने तलवार के जौहर दिखाए वही चारण, भाट आदि गीतकार ने अपनी लेखनी के माध्यम से स्वतंत्रता की भावना जागृत करने में विशेष भूमिका निभाई ।
सही अर्थों में देखा जाए तो इस राष्ट्रीय अभियान में आजादी के दीवानों का जितना महत्व रहा,
उतना ही महत्व इस प्रकार के साहित्य की रचना करने वाले कवियों का रहा,
क्योंकि उन्होंने केवल आजादी का अलख ही नहीं जगाया ।
बल्कि इसे गति में बनाए रखने में भी अपना विशेष योगदान दिया वास्तव में देखा जाए तो आजादी की लड़ाई का श्री गणेश उस समय हो गया था ।
जिसमें आतताईयों ने इस धरा पर आक्रमण कर यहां अपने पांव जमाने का प्रयास किया। शेखावाटी के वीर सपूत सांवताराम मीणा, करनाराम मीणा ,लोठू जाट, सुरजाराम बलाई और डूंगजी,जवाहर राजपूत आदि ने अंग्रेजी सत्ता का घोर विरोध करते हुए स्वाधीनता की भावना का अनुकरणीय परिचय दिया तथा अंग्रेजों की छावनी में लूट खसोट कर गोरों की सत्ता को हिला दिया यहां के चारण भाट कवियों ने यहां देश के उन सपूतों की वीरता भरी कर्तव्य परायणता और देशभक्ति का वर्णन बड़े सुंदर ढंग से किया है वहीं उन्होंने अंग्रेजों का पक्ष लेने वाले राजा महाराजा और स्वार्थी सरदारों की निंदा करते हुए उन्हें गुलामी की बेड़ियां तोड़ने की सीख दी है इसमें यह तो निश्चित है कि संघर्ष के नायक अंग्रेजी सता के घोर विरोधी थे।
उनके मन में ऐसी कोई भावना नहीं थी कि अंग्रेजों की छावनी या लूट कर अपना नाम कमाना हो उनका लक्ष्य केवल गरीब जनता की पेट की आग को बुझाना था ।व अंग्रेजो के द्वारा उनके साथ अत्याचार हो रहे थे उनको मिटाना था जबकि उनकी भावना में प्रजातंत्र स्थापित करने का कोई लक्ष्य नहीं था बस एक ही भावना थी कि गरीब लोगों की सहायता किस तरह की जा सके। जनता और सामाजिक समानता में समरसता की स्थापना मुख्य लक्ष्य था।
उनकी ख्याति को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य यहां के कवियों ने किया। सन् 1818 ईसवी से ही सहायता संधि के जाल में फंसकर राजस्थान के बड़े-बड़े राजा महाराजा, अंग्रेजों की शरण में जा चुके थे ,पर यहां के आदिवासी विशेषकर मीणा जाति के लोगों ने कभी भी विदेशी शासन की अधीनता स्वीकार नहीं की थी क्योंकि उनको साधन सुविधा के स्थान पर अपनी परंपरा व लोक संस्कृति अधिक प्यारी थी उसमें मत्स्य प्रदेश के शेखावाटी क्षेत्र के ढूंढाड़, खेराड तोरावटी के मीणा ने अंग्रेजी शासन को हिला कर रख दिया था ।क्रांति में आदिवासी जनता ने बहुत ही बढ़ चढ़कर भाग लिया क्योंकि अंग्रेजी शासन से उन्हें सबसे अधिक हानि थी। पहले राज्य की रक्षा का उत्तरदायित्व आदिवासी मीणा जाति पर था, उसके बाद में देशी राजाओं को अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त होने से इनका प्रभाव कम होने लगा अंग्रेजी राज में नवीन उद्योग नीति से परंपरागत उद्योग धंधे चौपट होते जा रहे थे, अफीम का धन्धा अंग्रेजी शासन के अंतर्गत चला गया था भूमि किसानों के हाथ से निकल कर जा रही थी।
जिस तरह से आज आप सभी को पता है अखबारों की प्रत्येक दिन की सुर्खियां बनी होती हैं कि
आज रेल डिपार्टमेंट बिक गया ।
आज एयर इंडिया बिक गई ।
आज पुरातत्व विभाग बिक गए ।
आज एलआईसी बिक गई ।
इसी तरह सन् 1818 में देश की बागडोर धीरे-धीरे पूंजीपतियों व अंग्रेजों के अधीन होती जा रही थी ।
जब आदिवासियों को इस बात का पता चला तो उन्होंने इसको रोकने का बीड़ा उठाया और आदिवासी लोगों को ऐसी गुलामी में जीना अच्छा नहीं लगा। उनसे यह सहन नहीं हुआ क्योंकि राजा महाराजा अपने निजी खर्च का समस्त भार किसान ,जनता पर डालते जा रहे थे। ऐसी स्थिति में जनक्रांति के लिए उचित वातावरण तैयार होता जा रहा था इधर कुछ स्वाभिमानी सामंत भी अंग्रेजी शासन के विरोध में उठ खड़े हुए थे जैसे आज भी काफी लोगों ने एक बीड़ा उठाया है कि हम सब मिलकर हमारे संविधान को जो भारत देश की आत्मा है उसको कैसे भी बचाएंगे ।
ऐसे ही समय-समय पर प्रकृति व सूर्य भगवान की कृपा से कहीं न कहीं सच्चे दिल के मनुष्य उत्पन्न होते हैं जो अपनी प्रजा को बचाने के काम आते हैं राजा महाराजाओं को अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त होने से इनका प्रभाव कम होता जा रहा था ब्रिटिश शासन की स्थानीय अवस्था में रात दिन के ऐसे हस्तक्षेप से भी कुछ सामंत अंग्रेजों से नाराज थे इनमें आहुआ के ठाकुर कुशाल सिंह, सलूंबर, गूलर सामंतों का नाम विशेष उल्लेखनीय है यह अकेले सामंत अंग्रेजी शासन से लोहा कैसे ले सकते थे इनकी शक्ति तो आदिवासी जनता के ऊपर ही निर्भर थी।
लगातार—————–

लेखक तारा चंद मीणा चीता प्रधानाध्यापक कंचनपुर सीकर
नोट -अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए शेखावाटी के वीर स्वतंत्रता सेनानी नामक पुस्तक का अध्ययन कीजिए

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